तू कहता है की तू पुस्तक है,
इंसान तो अपने आप को बदल सकता है,
क्या तू अपने आप पन्ने पलट या बदल सकता है ?
ये तो हम जैसे शयेरों ने पलटना और,
बदलना सिखाया है तुझे,
लम्हो दूरी की एक किताब है ज़िंदगी,
ऐ पुस्तक तू क्या है ?
आदमी चाहे तो तक़दीर बदल सकता है,
कभी ग़ज़ल में देखा तुझको तो,
कभी शाएरी में देखा,
ऐ पुस्तक हम जैसे शायरों ने,
तुझे शकल दिया,
लम्बे चौड़े कंद,
खुबसूरत चेहरा,
शब्द सूरों से भरा,
सदा बहार नगमे,
गीत - ओ - ग़ज़ल,
तरह तरह के कविता से भरे,
,
तूने तो सादे पन्ने के सिवा हमे कुछ भी नहीं दिया,
ऐ पुस्तक तुझको तो हम जैसे शायर और,
लेखक ने बनाया है,
और दुल्हन के तरह सजाया है तुझको,
फिर भी तू किस हक़ से,
अपने आप को पुस्तक कहता है ?
तुझको तो हमने नाम दिया है पुस्तक,
ऐ पुस्तक तेरा कोई जवाब नहीं,
सादे पन्ने और बिन शब्दों की अनुभव है तू,
सांसो और ख़यालो का हिसाब है ज़िंदगी,
तू क्या है ?
कुछ ज़रूरतें पूरी, कुछ ख्वाशें अधूरी,
तुझे जिसने जरुरत से ज्यादा चाह,
उसी ने अपनी आँखें और दिमाग गवा दिया,
ऐ पुस्तक तेरे कारण में भी,
शायर बनकर पागल बन गई,
क्या तेरा यही इरादा है लोगों का दिमाग खाने का,
तभी तुझको सब कहते है पुस्तक,
तुझको तो लोग हवा में पुरिया बनाकर फेकते है,
और हवा में पतंग बनाकर उधाते है,
और तुझे ज़मीं पर बिछाकर बैठते है,
और गुस्सा आये तो तुझे हज़ारों टुकड़ों में,
तोड़ का कूड़ेदान में फेकते है,
तू पुस्तक नहीं है,
तू तो सदा कागज़ है,
ऐ पुस्तक तू ही बता,
तेरे पास है कोई जवाब ?
~ ~ सदा बहार ~ ~
No comments:
Post a Comment